अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद

लेखक सौरभ जाजू, एवं बाल लेखक अन्विता जाजू की कलम से

“अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद “

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों के बहुत बड़ा योगदान है।इन तेजस्वी क्रांतिकारियों ने अपने देशप्रेम, शौर्य एवं अनूठी कार्यप्रणाली से जहाँ एक और देश के युवाओं में देश प्रेम की लहर पैदा की तो दूसरी औऱ अंग्रेज सरकार के मन में भय पैदा किया कि भारत देश के युवा आज़ादी के लिए कमर कस रहे हैं।

इन्ही महान क्रांतिकारियों में से एक थे “चन्द्रशेखर आज़ाद” उपनाम पंडित जी।इनका जन्म मध्यप्रदेश के अलीराजपुर जिले के भाबरा गाँव में हुआ था।इनका असली नाम चन्द्रशेखर तिवाड़ी था पर इन्होंने अपनी जाति हटाकर अपने संकल्प “आज़ाद” रहने को ही जाति की जगह जोड़ लिया।23 जुलाई 1906 को उनका जन्म हुआ।माता का नाम जगरानी देवी था, पिता पंडित सीताराम तिवाड़ी मूल रूप से उत्तर प्रदेश के बदरका बैसरावा(उन्नाव) के रहने वाले थे, 1856 में पड़े भीषण अकाल के कारण उनका परिवार अलीराजपुर औऱ फिर वहाँ से भाबरा आ गया। वहीँ माता पिता द्वारा धार्मिक सँस्कारों, शिक्षा और देशप्रेम के भाव उनमें गढ़े गए।चूंकि भाबरा वनवासी क्षेत्र था अतः स्थानीय वनवासी मित्रों के साथ उन्होंने निशानेबाजी सीखी और साहस के खेल खेले।

बचपने से देश में अंग्रेजों का राज उनको नागवार गुजरता था, शुरू में अहिंसात्मक आन्दोलनों से प्रेरणा ली, असहयोग आंदोलन के दौरान उनको एक बार पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और आंदोलन में भाग लेने पर 15 बैंत का दंड दिया, उनकी नँगे बदन पर बैंतें मारी गई, पर वो डरे नहीं बल्कि हर बैंत पर “भारत माता की जय” का घोष लगाते रहे, नाम पूछने पर सिर्फ अपना नाम “आज़ाद”ही बताते रहे और तय किया कि अब कभी जीते जी अंग्रेजों के हाथ नहीं आऊँगा।

पर गाँधीजी द्वारा असहयोग आंदोलन 1921 में वापस लेने से उनको निराशा हुई और वो क्रांतिकारी विचारों की और आकर्षित हुए। वो इसी उद्देश्य से बनारस आये वहीँ पढ़ाई के साथ क्रांतिकारी मन्मथदास गुप्ता और प्रणवेश चैटर्जी के “हिंदुस्तान प्रजातन्त्र संघ” के सदस्य बने, फिर झांसी और आस पास के वनों में अपना गढ़ बनाया और साथियों के साथ निशानेबाजी का अभ्यास शुरू किया, अपने संगठन में नए सदस्य भी बनाये, असहयोग आंदोलन की वापस से बहुत से युवाओं का कांग्रेस से मोहभंग हो गया था आज़ाद ने ऐसे युवाओं को अपने साथ शामिल किया।इन्हीं में उनको रामप्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्र नाथ सान्याल, अशफाक उल्ला खां, योगेश चन्द्र चैटर्जी का साथ मिला।

शुरुआत में इन्होंने आसपास के क्षेत्रों में धनपतियों के यहाँ डकैतियां भी डाली ताकि क्रांति के लिये हथियार एकत्र कर सके, परन्तु एक बार एक गाँव के लोगों ने उनपर घात लगाकर हमला भी कर दिया,फिर उन सब ने तय किया कि केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को ही लूटा जाएगा।इसी क्रम में उन्होंने 9 अगस्त 1925 में काकोरी स्टेशन पर एक ट्रेन जिसमें हथियार जा रहे थे, पुख्ता सूचना मिलने पर एके बेहतरीन योजना बना कर उसको लूटा।
ये कारनामा अंग्रेजों के मुँह पर गहरा तमाचा था, और भन्नाई सरकार ने गहरा खोजबीन अभियान चलाया और “आज़ाद” उनके गहरे निशाने पर आ गए।पर आज़ाद उनके पकड़ में नहीं आये, पर कुछ क्रांतिकारी पकड़ में आ गये जिसमें अशफ़ाक़ उल्ला खां, बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह को दिसम्बर 1927 में अंग्रेजों ने फाँसी दे दी और वे शहीद हो गए वतन के लिए।

पर आज़ाद ने हार नहीं मानी और दल के पुनर्गठन के लिए दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में 8 सितम्बर 1928 को उन्होंने एक गुप्त सभा की जिसमें “शहीद-ए-आजम” भगतसिंह भी शामिल हुए थे, और भगतसिंह को उन्होंने दल का प्रचार प्रमुख बनाया और सभी दलों को एकत्र करते हुए समाजवाद की विचारधारा को भी साथ लेकर दल का नाम “हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन” नाम का दल बनाया।आज़ाद को अपनी सैन्य और नेतृत्व क्षमता के कारण इस दल का सेना प्रमुख (कमांडर इन चीफ) बनाया गया।इस दल का एक ही लक्ष्य था आखिरी फैसले तक स्वाधीनता संघर्ष चलता रहेगा, चाहे हम जिये या मरें।

साइमन कमीशन के विरोध में आंदोलन करते लाला लाजपतराय जो कि क्रांतिकारियों को आर्थिक मदद भी देते थे उनकी पुलिस कमिश्नर सांडर्स के कहने पर पुलिस ने हत्या कर दी थी।क्रांतिकारियों ने हत्यारे सांडर्स के वध की योजना बनाई, 17 दिसम्बर 1928 को स्वयं चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह और राजगुरु ने लाहौर पुलिस अधीक्षक के कार्यालय को योजना बना कर घेरा,और मोटरसाइकिल पर अपने अंगरक्षक समेत सवार सांडर्स पर गोलियां चला दी, पहले राजगुरु और फिर भगतसिंह ने गोलियां दाग कर उसका वध कर दिया।इस हमले से पूरे देश मे आज़ाद, भगतसिंह और उनके दल की धमक हो गयी और अंग्रेज सरकार उनकी जान की दुश्मन बन गयी, सभी क्रांतिकारी कुछ समय के लिए भूमिगत हो गये।

पर ये ज्यादा दिन नहीं चला आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को असेम्बली में बिना किसी की हत्या किए हुए बम धमाके किये उनका कहना था कि” बहरों को सुनाने के लिए धमाकों की जरूरत होती है”। ऐसा कर के उन्होंने स्वयं को गिरफ्तार करवा लिया ताकि न्यायालय में चलते उनके केस की वजह से वो अपने विचार सरकार, राजनैतिक दलों और आम जनता के बीच ले जा सके।
इस घटना से आज़ाद को गहरा आघात लगा, उधर कुछ क्रांतिकारी कमजोर पड़ गए और कुछ डर और लालच से अंग्रेजों के खबरी बन गए औऱ अपने साथियों की जानकारी पुलिस को दे दी।1928 से 1931 के बीच कई क्रांतिकारी वीर इस गद्दारी के शिकार हुए उनपर मुकद्दमे हुए और कइयों को फाँसी हुई, सरकार के डर के मारे वकीलों ने उनके केस नहीं लड़े, झूठी गवाहीयां तक हुई, किसी भी राजनैतिक दल ने उनका साथ नहीं दिया।उनके प्रमुख साथी भगवती चरण बोहरा बम का परीक्षण करते हुए शहीद हो गए। उधर राजेंद्र लाहिड़ी समेत कई क्रांतिकारी लाहौर जेल प्रशासन के दमन के आगे भूख हड़ताल में बलिदान हो गए।

फिर आजाद ने दुर्गा भाभी के माध्यम से महात्मा गांधी से भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव जिनको फाँसी तय हुई थी उनको सजा से बचाने के लिए मदद माँगी, पर साफ मना कर दिया महात्मा गांधी ने।आज़ाद ने उनको जैल पर हमला कर के छुड़ाने की योजना भी बनाई पर सफल नहीं हो पाए।तीनों को फाँसी की जगह कम सजा या उम्र कैद हो जावे इसका प्रयास भी किया इसी क्रम में 20 फरवरी 1931 को वे प्रयागराज में पंडित जवाहर लाल नेहरू से आनन्द भवन में मिलने गए और अपील की कि लॉर्ड इरविन से गाँधीजी कह देवें तो सजा कम हो जावे पर वहाँ भी उनको निराशा हाथ लगी

अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद
अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद


27 फरवरी भगतसिंह की फाँसी के लगभग 1 माह पूर्व प्रयागराज के अल्फ्रेड पार्क में आज़ाद अपने एक साथी सुखदेव राज से मिलने पँहुचे पर ना जाने कैसे पुलिस को खबर लग गई जो लगातार उनको ढूंढ रही थी।CID अफसर नॉट बाबर कर्नलगंज थाने के एक बड़े पुलिस दल के साथ वहाँ आ धमका।आज़ाद के पास सिर्फ एक पिस्तौल थी दोनों और से गोलीबारी हुई,पर इतने बड़े दल से अकेले निपटना असम्भव था, चन्द्रशेखर आज़ाद ने प्रतिज्ञा की थी कि जीते जी कभी अंग्रेजों के हाथ नहीं आएँगे और उन्होंने एक गोली अपनी कनपटी पर दागी और स्वंय को बलिदान कर दिया देश के लिये।उनकी मृत्यु हो जाने के कई घँटे बाद तक पुलिस की भयवश उनके पास जाने की हिम्मत नहीं हुई।बाद में पुलिस ने फ़टाफ़ट में उनका अंतिम संस्कार कर दिया, पर शाम तक खबर पूरे प्रयागराज में आग की तरह फैल गयी,जनता सड़कों पर आ गयी, विरोध प्रदर्शन हुआ देशभर में शोक की लहर छा गई, जेलों में बंद क्रांतिकारियों को जब खबर लगी तो उनमें भयंकर क्रोध और दुःख छा गया।

पर देश ने आज़ादी के बाद कई वर्षों तक उनकी शहादत का उचित सम्मान नहीं दिया, उनकी विधवा माँ कई वर्ष तक भीख माँग कर पेट भरती रही, किसी ने उनकी सुध नहीं ली। चन्द्रशेखर आज़ाद के जीते जी जब क्रांतिकारियों को पता चला कि आज़ाद के माता पिता बहुत वृद्ध और गरीबी में है तो भगतसिंह ने उनको कहा “पंडित जी आप क्रांति के लिए एकत्र धन में से कुछ अपने माता पिता की सहायता के लिए भेज देवें तो उन्होंने मना कर दिया और कहा कि “मैं देश और क्रांति से गद्दारी नहीँ करूँगा और रही बात मेरे माँ बाप की सेवा तो उनकी सेवा के लिए मेरी बन्दूक की दो गोलियां ही उनकी सेवा के लिए बहुत है“।

शत शत नमन है चन्द्रशेखर आज़ाद और उनकी अप्रतिम राष्ट्रभक्ति को।

“जब तक सूरज चाँद रहेगा। आज़ाद तेरा नाम रहेगा।”।।

                 वन्दे मातरम

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